गृहस्थ का विलोम शब्द Grahasth ka vilom shabd kya hai ?

गृहस्थ का विलोम शब्द या गृहस्थ का विलोम , गृहस्थ का उल्टा क्या होता है ? Grahasth ka vilom shabd

शब्दविलोम शब्द
गृहस्थब्रह्मचारी, सन्यासी
GrahasthBrahmchari, Sanyasi  

गृहस्थ का विलोम शब्द और अर्थ

दोस्तों आपने दो प्रकार के भेद सुने होंगे। एक होता है गृहस्थ और दूसरा होता है संयासी । ग्रहस्थ का मतलब जो घरेलू कार्यों मे रहता है। एक घर मे उसका पूरा परिवार होता है वह गृहस्थ होता है। यह जरूरी नहीं होता है कि गृहस्थ मे शादी हो ही । लेकिन ‌‌‌यदि आप घर मे रहते हैं। अपनी परिवार की जरूरतों के लिए काम करते हैं तो आप ग्रहस्थी के अंदर आते हैं। वैसे आजकल कम लोग ही संयासी बनना चाहते हैं। क्योंकि मिडिया वालों ने साधुओं को इतना अधिक बदनाम कर दिया है कि पूछो मत जैसे मिडिया वाले खुद बहुत अधिक दूध के धूले हैं। लेकिन असल मे आज भी ‌‌‌अच्छे साधु मौजूद हैं।

गृहस्थ का विलोम शब्द

‌‌‌अब आप पूछ सकते हैं की गृहस्थ मे क्या फायदा है ? दोस्तों पहले का जमाना कुछ और था और आज का कुछ और अब तो लोग गृहस्थ मे ही रहना चाहते हैं। वे चाहते ही नहीं है कि संयासी बनें। गृहस्थ मे सब कुछ आसान लगता है। शादी हो जाने के बाद पत्नी के साथ रहो ।

उसके बाद बच्चे हो जाते हैं। फिर बच्चों को   ‌‌‌पालने मे अपने जीवन को बिताओं। और जब बच्चे कुछ बड़े हो जाते हैं तो फिर उनका विवाह करो । कमाते रहो । इस प्रकार एक दिन मर जाओ । लेकिन ऐसा नहीं है कि गृहस्थ जीवन के अंदर सुख होता है। मैं ऐसे अनेक गृहस्थी लोगों को जानता हूं जिनके जीवन मे सूख नहीं दुख भरा हुआ है।

‌‌‌उस महिला का नाम तो मैं आपको यहां पर नहीं बताना चाहूंगा लेकिन उस महिला का एक ही बेटा है। महिला को सांप खा गया था। सांप खाने के बाद बेटे ने उसका ईलाज नहीं करवाया तो उस महिला को तो कुछ नहीं हुआ लेकिन आज भी वह अकेली रहती है और दुखी है।

‌‌‌तो इस प्रकार के कपूत होंने से अच्छा है कोई हो ही ना । हालांकि बेटे के अंदर इतना दिमाग नहीं है कि आज उसकी मां की यह दशा हो रही है तो कल उसकी  यही दशा हो सकती है। ‌‌‌लेकिन तब तक किसको बता चलता है जब तक की खुद के बीतती नहीं है। आपको बतादें कि गृहस्थ जीवन असल मे भटकाव का जीवन होता है। एक साधु भी भटक सकता है। लेकिन इसके कम चांस होते हैं। लेकिन यदि आप गृहस्थ हैं तो आपका जीवन पूरी तरह से वासनाओं मे निकल जाएगा । और आप वो चीजें पूरे अपने जीवन मे करते चले ‌‌‌जाएंगे जिनका कोई भी मतलब नहीं है।और जब मौत का वक्त आएगा तो आपको पछताने के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा ।

‌‌‌गृहस्थ होकर कमाना , प्यार करना , और यह सब कुछ बकवास से ज्यादा कुछ नहीं है। आपको अपने असली रूप के बारे मे यदि नहीं पता है तो सब कुछ  व्यर्थ हो जाता है। जैसे गधे को शेर की खाल पहनाने  से गधे को यह भ्रम हो जाता है कि वह शेर है। इसी तरीके से ग्रहस्थों को भी यह भ्रम रहता है कि वह सबसे बड़ा ‌‌‌अधिकारी है। लेकिन जब वक्त आता है तो वही आइपिएस अधिकारी किचड़ मे मुंह रखकर सो रहा होता है। यही यहां पर असली औकात होती है। ‌‌‌जिस सफलता के पीछे एक गृहस्थ भागता है वह बस कुछ समय सुख देती है। उसका कोई फायदा नहीं है।

सन्यासी कस अर्थ और मतलब

दोस्तों संयासी को लेकर काफी अधिक भ्रम फैलाया जाता है। लेकिन आपको यह बतादें कि भगवा चौला पहनने से कोई भी संयासी नहीं बन जाता है। और हर किसी के अंदर दम नहीं होता है कि वह संयासी बन जाए । ‌‌‌जो लोग रात दिन शराब पीते हैं और अनेक तरह की बुरी आदतों के शिकार हैं इसी तरह के लोगों से यदि आप संयासी के बारे मे पूछेंगे तो वे अपने मुंह से गंध ही निकालेंगे और आप उनसे अच्छाई की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। यदि एक गंदगी के अंदर रहने वाले कीड़े से बाहर की दुनिया के बारे मे पूछेंगे तो वह गंदगी ‌‌‌ को ही अच्छा बताएगा । उसे बाहर की दुनिया के बारे मे क्या मतलब हो सकता है।जैसे यदि आप किसी बंदर को अदरख के स्वाद के बारे मे पूछेंगे तो वह कभी भी अदरक के स्वाद को नहीं बता पाएगा । क्योंकि उसके लिए वह बेकार है।

‌‌‌इंसान हो या जानवर वह दूसरों को वैसा ही तो देखता है जैसा कि उसके कर्म संस्कार होते हैं। यदि आप जमीन मे आम बोओगे तो केले की उम्मीद करना बेकार हो जाएगा ।

‌‌‌जिस दिन आप एक सच्चे संयासी से मिल जाएंगे ना उस दिन आपको अपनी जिदंगी फीकी लगने लग जाएगी । क्योंकि संयासी की दुनिया बहुत ही अधिक विचत्र होती है। संयासी सबसे अधिक सुखी इंसान होता है। क्योंकि वह दुनिया के रहस्य को बहुत ही अच्छी तरह से जान लेता है।

‌‌‌लेकिन विडंबना यह है कि सच्चे संयासी मिलते ही कहां हैं। यदि सच्चे संयासी मिल भी जाते हैं तो वे सामने नहीं आएंगे । क्योंकि वे कर्म संस्कारों को बहुत ही अच्छे से जानते ही हैं।

‌‌‌कुछ दिनों पहले एक व्यक्ति मेरे पास आया और बोला कि हमारे गुरू से नामदान लो तो बेड़ा पार हो जाएगा । दूसरे सब पंथ तो झूंटे हैं हमारे गुरू ने साबित कर दिया । मैंने उनको कहा चलो दूसरे पंथ झूंठे हैं तो क्या तुम्हारे गुरू ने किताबों को पढ़के ही साबित किया है या कुछ करके देखा है। चेले ने कहा ‌‌‌ सब किताबों के अंदर लिखा है करने की जरूरत ही क्या है? उसके बाद हमने कहा वो तो हम ही पढ सकते हैं गुरू की जरूरत ही क्या है ? गुरू वो होता है जिसके पास लिखे हुए को प्रमाणित करने की क्षमता होती है। गुरू ऐेसे ही बनने से कुछ नहीं होगा ।

‌‌‌अर्जुन को कृष्ण ने दिव्य द्रष्टि प्रदान की और अपना असली रूप दिखाया यह उनके अंदर की क्षमता थी । लेकिन आज के कई गुरू तो ऐसी के अंदर सोते हैं और अच्छा भोजन करते हैं वे क्या प्रदान करेंगे । और जनता के अंदर तार्किक समझ होती नहीं है। ऐसी स्थिति मे कुछ फायदा होने वाला नहीं है।

‌‌‌तो दोस्तों संयासी का मतलब भगवा वस्त्र पहने लेने से ही नहीं होता है।संयासी वह है जो माया मे रहते हुए भी उससे लिप्त नहीं होता है । ‌‌‌फिर उससे कोई मतलब नहीं है कि वह क्या करता है ? और क्या नहीं करता है ? बस कर्म सावधानी पूर्वक करने चाहिए ।

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